Author: सोनालाल सिंह, पुलिस उपाधीक्षक (से० नि०), सुबोध कुमार, पुलिस उपाधीक्षक (रक्षित) गोपालगंज | Date: 2025-06-01 13:29:54

प्रस्तावना

FIR (प्रथम सूचना रिपोर्ट) एक संज्ञेय अपराध की पहली और अधिकृत सूचना होती है, जिसे पुलिस अधिकारी द्वारा दर्ज किया जाता है। यह आपराधिक जांच प्रक्रिया की नींव होती है। FIR दर्ज होते ही पुलिस को मामले की जांच शुरू करने का विधिक अधिकार प्राप्त हो जाता है।

FIR क्या है?

जब किसी व्यक्ति के साथ कोई आपराधिक घटना घटित होती है, तो वह स्वयं या कोई अन्य व्यक्ति जो घटना से अवगत है, संबंधित थाने में जाकर पुलिस को सूचना देता है। पुलिस उस सूचना को सरकार द्वारा निर्धारित प्रारूप में दर्ज करती है और उसके आवेदन के साथ न्यायालय को भेजती है। यही सूचना जब विधिवत रूप से दर्ज होती है तो उसे FIR कहा जाता है। FIR से संबंधित विस्तृत प्रावधान BNSS (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता) की धारा 173 में दिए गए हैं। FIR केवल संज्ञेय अपराध की सूचना मिलने पर ही दर्ज की जाती है। यह एक आधिकारिक दस्तावेज है, जो यह प्रमाणित करता है कि पुलिस को अपराध की जानकारी दी गई है।

FIR दर्ज करने की शर्तें:

  1. सूचना किसी संज्ञेय अपराध के संबंध में हो (संज्ञेय अपराध वे हैं जिन्हें BNSS की अनुसूची-1 में संज्ञेय के रूप मे सूचीबद्ध किया गया है)।
  2. FIR भारत के किसी भी पुलिस थाने में दर्ज कराई जा सकती है, भले ही अपराध किसी अन्य क्षेत्र में घटित हुआ हो।
  3. FIR की सूचना मौखिक, लिखित या इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से दी जा सकती है। यदि मौखिक रूप से दी जाती है, तो पुलिस को उसे लिखकर सूचक को पढ़कर सुनाएगा। यदि सूचना इलेक्ट्रॉनिक रूप से दी गई है, तो सूचक को तीन दिनों के भीतर थाने जाकर अपने हस्ताक्षर करने होते हैं।
  4. सभी शिकायत पर शिकायतकर्ता के हस्ताक्षर आवश्यक हैं।
  5. FIR की एक प्रति नि:शुल्क सूचक को दी जानी चाहिए (BNSS धारा 173(2))।

सूचना की कब प्रारम्भिक जांच की जाएगी:

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 173(3) के अनुसार किसी संज्ञेय अपराध के किए जाने से संबंधित सूचना प्राप्त होने पर वैसे अपराध जिसमें सजा 3 वर्ष या उससे अधिक किंतु 7 वर्ष से कम है, कोई भी थानाध्यक्ष अपराध की प्रकृति और गंभीरता को देखते हुए पुलिस उपाधीक्षक से अन्यून पदाधिकारी के आदेश से प्रारंभिक जांच कर सकता है।

यह जांच 14 दिनों की अवधि के भीतर पूरी  कर लेनी है। यदि जांच के दौरान प्रथम दृष्टया मामला अनुसंधान का बनता है तो वही से अनुसंधान प्रारंभ कर दी जाएगी।

FIR कब महिला पुलिस अधिकारी द्वारा दर्ज की जाएगी:

FIR आम तौर पर किसी भी पुलिस अधिकारी द्वारा दर्ज की जा सकती है, लेकिन कुछ मामलों में अनिवार्य रूप से महिला पुलिस अधिकारी द्वारा ही दर्ज की जाती है। इसका उद्देश्य महिला की गरिमा एवं सुरक्षा सुनिश्चित करना है।

1. महिलाओं के विरुद्ध अपराध:

BNSS की धारा 173(1) की दूसरी proviso के अनुसार, यदि कोई महिला यौन अपराध (जैसे बलात्कार, छेड़छाड़ आदि) की शिकायत करती है, तो FIR महिला पुलिस अधिकारी द्वारा ही दर्ज की जाएगी।

प्रासंगिक धाराएँ (भारतीय न्याय संहिता): धारा 64 से 71, धारा 74 से 79 और धारा 124।

2. यदि पीड़िता मानसिक या शारीरिक रूप से असमर्थ हो:

ऐसी स्थिति में:

  • FIR पीड़िता के चिहीत स्थान पर जाकर दर्ज की जाएगी।
  • आवश्यकता होने पर दुभाषिए या विशेषज्ञ की सहायता ली जाएगी।
  • पूरी प्रक्रिया की वीडियो रिकॉर्डिंग की जाएगी।
  • पीड़िता का बयान मजिस्ट्रेट के समक्ष BNSS की धारा 183(6)(a) के तहत दर्ज कराया जाएगा।
  • जहाँ संभव हो, FIR दर्ज करने के लिए महिला पुलिस अधिकारी को भेजा जाएगा।

3. यदि पीड़िता नाबालिग हो:

POCSO अधिनियम 2012 की धारा 24 के अनुसार:

  • बयान बच्चे के घर या उसकी पसंद की किसी सुरक्षित जगह पर दर्ज किया जाएगा।
  • यह कार्य महिला अधिकारी द्वारा किया जाएगा (रैंक सब-इंस्पेक्टर से कम नहीं हो)।
  • पुलिस अधिकारी वर्दी में नहीं होंगे।
  • बच्चे को रात में थाने में नहीं रोका जाएगा।
  • बच्चे की पहचान गोपनीय रखी जाएगी।
  • बच्चे का बयान विश्वासपात्र की उपस्थिति में लिया जाएगा।
  • आवश्यकता होने पर योग्य अनुवादक या विशेष शिक्षक की सहायता ली जाएगी।
  • जहां संभव हो, बयान की ऑडियो-वीडियो रिकॉर्डिंग की जाएगी।

FIR दर्ज करने से इंकार की स्थिति में उपाय:

  • BNSS की धारा 173(4) के तहत SP को शिकायत दी जा सकती है।
  • धारा 175(3) के तहत न्यायिक मजिस्ट्रेट से जांच के आदेश मांगे जा सकते हैं।
  • उच्च न्यायालय में रिट याचिका दायर की जा सकती है।

महत्वपूर्ण: FIR नागरिक का कानूनी अधिकार है। कोई भी पुलिस अधिकारी यह कहकर FIR दर्ज करने से इनकार नहीं कर सकता कि वह झूठी है। जांच के बाद ही FIR की सच्चाई तय की जा सकती है। यदि सूचना झूठी पाई जाए तो सूचक के विरुद्ध कार्रवाई की जा सकती है।

महत्वपूर्ण निर्णय:

ललिता कुमारी बनाम भारत सरकार (2013): सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि संज्ञेय अपराध की सूचना मिलने पर FIR दर्ज करना अनिवार्य है। पूर्व जांच वैकल्पिक है, अनिवार्य नहीं।

किन सूचनाओं की FIR दर्ज की जाएगी:

बिहार पुलिस मैनुअल नियम 143 के अनुसार, किसी संज्ञेय अपराध की सूचना को थानाध्यक्ष BNSS की धारा 173(1) के तहत प्रपत्र संख्या 26 में दर्ज करेगा। सूचना मौखिक, लिखित या इलेक्ट्रॉनिक किसी भी माध्यम से हो सकती है। सूचक पर लिखित सूचना देने का दबाव नहीं डाला जाएगा।

अनुश्रुत प्रतिवेदन (Hearsay):

यदि सूचना प्रत्यक्षदर्शी न होकर किसी ऐसे व्यक्ति से मिले जिसने सुनी-सुनाई बात बताई हो, तब भी यदि वह सबसे पहले पुलिस को सूचना देता है, तो वह FIR मानी जाएगी। ऐसे में थानाध्यक्ष किसी अन्य प्रत्यक्षदर्शी की प्रतीक्षा नहीं करेगा।

उड़ती अफवाह:

उड़ती अफवाह को FIR नहीं माना जाएगा, केवल थाना दैनिकी में दर्ज किया जाएगा। यदि बाद में वह सत्य सिद्ध हो, तो उचित संशोधन के बाद उसे FIR माना जा सकता है।

FIR रद्द करना वर्जित:

एक बार FIR दर्ज हो जाने के बाद उसे किसी भी परिस्थिति में रद्द नहीं किया जा सकता।

पुलिस अधिकारी पर प्रहार या बाधा से संबंधित FIR:

यदि कोई व्यक्ति ड्यूटी पर तैनात पुलिसकर्मी पर हमला करता है या कार्य में बाधा डालता है, तो:

  • पुलिस थाने में FIR दर्ज कर सकती है,
  • या न्यायालय में परिवाद प्रस्तुत कर सकती है।

FIR दर्ज होने पर सामान्य जांच प्रक्रिया अपनाई जाएगी, लेकिन आरोप-पत्र पुलिस अधीक्षक के लिखित आदेश के बिना न्यायालय में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। यह प्रावधान केवल पुलिसकर्मियों के मामलों में लागू होता है। अन्य सरकारी अधिकारियों के मामलों में यह बाध्यता नहीं है। (बिहार पुलिस मैनुअल नियम 144ख)

FIR किसे भेजी जाएगी:

FIR की मूल प्रति, जिस पर सूचक के हस्ताक्षर होते हैं, तुरंत मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी या अनुमंडल न्यायिक दंडाधिकारी को भेजी जाएगी। इसके अलावा चार कार्बन प्रतियाँ बनाई जाती हैं:

  1. पुलिस अधीक्षक (SP) को
  2. क्षेत्रीय निरीक्षक (CI) को
  3. थाना में अभिलेख हेतु
  4. सूचक को (BNSS धारा 173(2) के तहत नि:शुल्क)

क्षेत्रीय निरीक्षक अपनी प्रति SDPO को भेजेगा। (बिहार पुलिस मैनुअल नियम 148क)

असंज्ञेय अपराध की सूचना मिलने पर थानाध्यक्ष द्वारा कार्रवाई: धारा 174 BNSS

  • सूचना का सार थाना दैनिकी में दर्ज करेगी।
  • थानाध्यक्ष सूचना देने वाले को मजिस्ट्रेट के पास जाने को कहेगा।
  • प्रत्येक पखवाड़े थाना दैनिकी रिपोर्ट को मजिस्ट्रेट के पास भेजेगी।

2. मजिस्ट्रेट की अनुमति के बिना जांच निषिद्ध:

  • गैर-संज्ञेय अपराधों की जांच मजिस्ट्रेट की पूर्व अनुमति के बिना नहीं की जा सकती।

3. आदेश मिलने पर पुलिस की शक्तियाँ:

  • मजिस्ट्रेट की अनुमति मिलने पर पुलिस को जांच का अधिकार प्राप्त होता है, लेकिन गिरफ्तारी केवल वारंट के माध्यम से ही की जा सकती है। बिना वारंट गिरफ़्तारी नहीं होगी।

4. संमिश्र अपराध:

  • यदि कोई मामला संज्ञेय और असंज्ञेय दोनों प्रकार के अपराधों से संबंधित हो, तो संपूर्ण मामला संज्ञेय माना जाएगा।

FIR और NCR (Non-Cognizable Report) में अंतर:

विषय

       FIR (Cognizable)

          NCR (Non-Cognizable)

अपराध की प्रकृति

    गंभीर

              कम गंभीर

गिरफ्तारी अधिकार

    होता है

             नहीं होता है

मजिस्ट्रेट अनुमति

  आवश्यक नहीं

            आवश्यक

संबंधित धारा

  154 CrPC

            155 CrPC

FIR: प्रारंभिक सूचना, न कि ठोस साक्ष्य:

FIR एक प्रारंभिक दस्तावेज है, न कि ठोस साक्ष्य। इसका उद्देश्य केवल पुलिस को अपराध की सूचना देकर आपराधिक प्रक्रिया की शुरुआत करना होता है। इसका उपयोग साक्ष्य के रूप में नहीं किया जा सकता, लेकिन गवाहों के बयान की पुष्टि या विरोधाभास में सहायक हो सकता है।

संदर्भ: पांडुरंग चंद्रकांत म्हात्रे बनाम महाराष्ट्र राज्य (2009)

व्यावहारिक निर्देश (SOPs) पुलिस अधिकारियों के लिए:

  • तटस्थ भाषा का प्रयोग करें, कोई निष्कर्ष न जोड़ें।
  • सभी तथ्य संक्षिप्त और स्पष्ट रूप में लिखें।
  • केस डायरी में FIR का नंबर व समय ठीक से दर्ज करें।
  • महिला पीड़िता की शिकायत महिला अधिकारी द्वारा ही ली जाए (जहाँ संभव हो)।
  • SC/ST अत्याचार या POCSO मामलों में विशेष सावधानी और त्वरित कार्रवाई करें।

निष्कर्ष:

FIR (प्रथम सूचना रिपोर्ट) आपराधिक न्याय प्रणाली का एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्तंभ है, जो संज्ञेय अपराध की विधिक रूप से पहली स्वीकृत सूचना के रूप में कार्य करता है। यह न केवल पुलिस जांच प्रक्रिया की औपचारिक शुरुआत का आधार बनता है, बल्कि पीड़ित व्यक्ति को न्याय की ओर पहला कदम बढ़ाने का अधिकार भी देता है। BNSS की धारा 173 के तहत FIR दर्ज करने की प्रक्रिया, उसके प्रकार, प्रारंभिक जांच, महिला व बाल पीड़ितों के विशेष प्रावधान, FIR दर्ज करने से इनकार की स्थिति में उपलब्ध उपाय, तथा FIR और NCR के बीच का अंतर – इन सभी पहलुओं को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है।

FIR को दर्ज करते समय निष्पक्षता, संवेदनशीलता और विधिक मानकों का पालन अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि यह दस्तावेज आगे चलकर न्यायिक प्रक्रिया की दिशा को प्रभावित कर सकता है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा ललिता कुमारी बनाम भारत सरकार जैसे निर्णयों ने यह सुनिश्चित किया है कि संज्ञेय अपराध की सूचना को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता और पुलिस अधिकारी का कर्तव्य है कि वह उस पर विधिसम्मत कार्रवाई करे।

इसलिए FIR न केवल एक कागज का टुकड़ा है, बल्कि यह कानून के शासन और नागरिक के अधिकारों के संरक्षण का आधार है। इसका उद्देश्य अपराध के प्रति त्वरित और न्यायसंगत प्रतिक्रिया सुनिश्चित करना है। यदि इसे सही तरीके से दर्ज किया जाए, तो यह न्याय दिलाने की दिशा में एक मजबूत कदम बन सकता है।